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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 90

जैसे ही अशोक सुन्दरी ने दोनों को विश्राम करने की अनुमति प्रदान की, देवयानी की बांछें खिल गई । जैसे विद्यालय में अध्ययनरत विद्यार्थी छुट्टी की घंटी बजने पर अपनी अपनी कक्षाओं से भाग छूटते हैं , जेल से कैदी अपनी सजा समाप्त होने पर आनंद का अनुभव करते हैं वैसे ही देवयानी ने भी राहत की सांस ली । "श्वश्रु" ऐसी दयालु भी होती हैं, यह आज पता चला था उसे अन्यथा श्वश्रुओं के अत्याचार के अनेक किस्से सुनाए थे उसकी सखियों ने । अशोक सुन्दरी ने जो स्नेह प्रदर्शित किया था वह मातृवत था । श्वश्रु भी तो एक माता ही होती है , अपने पति की माता । फिर वह अपनी वधू पर अत्याचार क्यों करती है ? वह भी एक स्त्री ही है और स्त्री होकर एक स्त्री पर अनाचार करते हुए वह लज्जित नहीं होती अपितु गर्वित महसूस करती है । इतिहास गवाह है कि जितने अनाचार श्वश्रुओं ने अपनी वधुओं पर किये हैं उतने तो पुरुषों ने भी नहीं किये होंगे ? कहते हैं कि स्त्री का हृदय बहुत कोमल होता है पर जब वह अपनी वधू पर क्रोध करती है, अत्याचार करती है, बर्बरता करती है तब उसका वही कोमल हृदय पाषाण में क्यों परिवर्तित हो जाता है ?

अपनी ही वधू के विरुद्ध अपने पुत्र को भड़काने , उकसाने, लड़ाई झगड़ा करवाने का कार्य कौन करवाती हैं ? श्वश्रु ही ना ? पता नहीं क्या आनंद मिलता है इन्हें ऐसा करने में ? कहीं कहीं तो वधुओं को किरोसिन डालकर जला दिया जाता था । ये कैसी श्वश्रुऐं होती हैं ? कोई पाषाण हृदया भी ऐसा नहीं करती हैं किन्तु कुछ नराधम होती हैं जो इस स्तर तक गिर जाती हैं । लेकिन उसका तो सौभाग्य है कि उसे ऐसी श्वश्रु मिली है जो माता के सदृश वात्सल्य की बरसात कर रही हैं । पृथ्वी की तरह उसकी त्रुटियों को क्षमा कर रही हैं और सूर्य की तरह उसका मार्गदर्शन कर रही हैं । उसे अपनी श्वश्रु पर अभिमान होने लगा । वह बहुत कुछ सोचना चाहती थी किन्तु आह ! यह बदन ! उफ ! एकदम अकड़ गया है । उसने अपनी कमर सीधी करते हुए एक जोर की जम्हाई ली । कितना आनंद आया उसे । क्षणिक आराम आ गया था । उसने शर्मिष्ठा को आवाज लगाई "शर्मिष्ठा, कहां है तू ? जरा दरवाजे के बाहर बैठी रहना । मैं बहुत थक गई हूं । थोड़ा विश्राम करूंगी । इस बीच कोई आकर मुझे परेशान नहीं करे, ध्यान रखना । और हां, तू मत सो जाना । पूरी चौकसी रखना" । देवयानी ने आंखें तरेरते हुए कहा । "जी स्वामिनी" शर्मिष्ठा ने पूरे सम्मान के साथ कहा । "ठीक है, ठीक है । अब चुपचाप बाहर बैठ । बहुत बकबक करती है" । देवयानी ने जोर से दरवाजा बंद करते हुए कहा । शर्मिष्ठा अपना सा मुंह लेकर रह गई ।

देवयानी ने अपने वस्त्र बदले और पलंग पर लेट गई । लेटते ही वह निद्रा देवी के आगोश में समा गई । अचानक उसे जोर जोर से हंसने की आवाजें सुनाई देने लगी । देवयानी घबरा कर चारों ओर देखने लगी पर उसे कुछ दिखाई नहीं दिया लेकिन हंसी की आवाजें निरन्तर आ रही थीं । "कौन है ? कौन है वहां" ? हैरानी से देवयानी ने पूछा कहीं से कोई आवाज नहीं आई पर हंसने की ध्वनि लगातार सुनाई दे रही थी । अब देवयानी को भय लगने लगा । कौन हो सकता है ? कोई दानव , दैत्य या राक्षस ? पर ये सब तो असुर कुल के हैं और इनके गुरू शुक्राचार्य हैं इसलिए इनकी इतनी हिम्मत नहीं हो सकती है जो ये अपने सर्व समर्थ गुरू शुक्राचार्य की पुत्री को भयभीत करने का प्रयास करें । कोई और ही है ये ? लेकिन कुछ पता नहीं लग रहा था ।

"नहीं पहचाना ना ? पहचानोगी भी कैसे ? तुमने तो मुझे श्राप दे दिया था । जिसे श्राप दे दिया जाये उसे कोई क्यों पहचानेगा" ? इस आवाज में व्यंग्य भी था और दर्द भी था । विवशता भी थी और उलाहना भी था । देवयानी को वह आवाज कुछ कुछ जानी पहचानी सी लगने लगी थी । दिखाई कुछ भी नहीं दे रहा था किन्तु सुनाई सब कुछ दे रहा था । "क् क् कौन है" ? भय के वशीभूत होकर दांत किटकिटाते हुए बड़ी मुश्किल से बोली देवयानी । "अरे, अभी भी नहीं पहचानी ? वैसे तो बड़ा दंभ भरती थी कि मैं बहुत प्रेम करती हूं मगर जिससे प्रैम करती हो उसे पहचानती भी नहीं हो ? प्रेम करने का यह कैसा प्रचलन है यानी" ? आवाज में गजब का उपहास था । "यानी" संबोधन सुनकर देवयानी चौंकी । यानी तो कच ही कहकर बुलाता था । "तो क्या यह कच है ? पर दिखाई क्यों नहीं दे रहा है मुझे ? अरे, दिखाई कैसे देगा ? मेरे वैभव और ऐश्वर्य को देखकर जल भुन गया होगा , और क्या ? अब अकिंचन देवयानी नहीं महारानी देवयानी से बातें हो रही है कच की । उसे यह ज्ञात होना चाहिए । आज वह कच को सबक सिखाकर ही रहेगी" । देवयानी ने मन ही मन सोचा

"कौन कच ? कहां है तू ? सामने क्यों नहीं आता है ? मेरे वैभव और ऐश्वर्य से डर लगता है ना ? तूने भी कहां देखा है ऐसा ऐश्वर्य । जिसने यह वैभवशाली ऐश्वर्य नहीं देखा हो वह कैसे देख सकता है ? अच्छा हुआ जो तूने मुझे ठुकरा दिया । मैं यदि तेरे साथ रहती तो आज किसी झोंपड़ी में रह रही होती । भोजन को भी तरसती । और आज !आज मेरे पास सब कुछ है । धन दौलत , पद , प्रतिष्ठा, राज , वैभव , समृद्धि , रूप - रंग , ऐश्वर्य आदि । तेरे पास क्या है ? एक कमंडल ही ना ? अब मस्त रह उस कमंडल के साथ" देवयानी तिरस्कार करते हुए बोली ।

देवयानी की बातें सुनकर कच को हंसी आ गई । शेष अगले भाग में

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1 Comments

madhura

06-Sep-2023 05:21 PM

Fabulous story

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